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है तुम हो मेरे लिए "मामूली"

मैं महसूस करना चाहता था कि जब लोग बदल जाते है तब कैसे जी पाते है। मैंने पकड़ के देखा है किसी का हाथ कंपकंपी सी छूट जाती है और याद आ जाती हो तुम। सोचता हूं हाथ तो तेरे भी लरजे होंगे जब तूने किसी और का हाथ थामा होगा। मुहब्बत का टूटना ठीक वैसा ही है जैसे चाय पीते हुए होठों से लगते ही कप का अपनी ही गोद में टूट कर बिखर जाना। बड़ी पीड़ा होती है, सोचता हूं जिंदगी का यही हश्र देखना था। क्या कभी शून्य के पीछे भी कोई जीवन होता है, अगर मैं फिर भी जी रहा हूं तो जरूर कोई कारण है। कितने लोग आए गए हो गए, कितने ही आएंगे जाएंगे पर मैं आगे नहीं बढ़ पाया। मेरी किताबें भी उदास है कि मैं उनसे प्रेम नहीं करता। कुछ नई किताबें पड़ी है रैक में पर पढ़ ही नहीं पाया। अन्तिम पढ़ा उपन्यास गुनाहों का देवता और फिफ्टी शेड्स की सीरीज थी, फिर कुछ नहीं पढ़ पाया, ना कुछ लिख पाता हूं। ऐसा नहीं है कि मैं तेरे बिना उदास हूं बस तेरे बिना बिना जड़ों का पोधा हूं। अब कोई फर्क नही पड़ता लोग मेरे बारे में क्या सोचते है, मुझे क्या कहते है। अब फर्क नहीं पड़ता तुझ पर लिखी कविताओं को कोई पढ़े या ना पढ़े,..... कौन कैसा है क्यों है मुझे

dipesh kumar verma

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