ये बात
ये बात परसों से दो दिन पहले की ही तो है जब रोज़ के सूनसान चेहरे से हटकर एक डरी-डरी-सी मुस्कान दी थी तुमने फिर बातों-बातों में पता चला कि कागज़ के फूल तो तुम्हें भी अच्छे लगे थे और अमृता से 'रसीदी टिकट' तुमने भी ले रखा था इतवार को नुक्कड़ की जलेबी के संग छनकर हर बार कई किस्से मीठे हुए मगर जब पिछले मोड़ पर रास्ते घूमे तो घर तक का सफ़र कुछ तनहा हो गया आज जब कभी खिड़की से झाँककर देख लेता हूँ तो कतरा-कतरा हम दोनों को उन्हीं गलियों में छूटा पाता हूँ।